शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

राह अभी अधूरी है

जली हुई क्यों मन की ज्वाला, फिर आज कौंध उठी है।
पथ के साथी सब छूटे, पर राह अभी अधूरी है।
टूटे मोती क्षितिज तटों में, सहमे-सहमे लगते हैं।
वही धरा और वही गगन फिर, बदले-बदले लगते हैं।
जिसमें कल जीवन मेरा था, वही आज अनजान बना।
जुल्म कभी कुछ किया नहीं, पर वक्त ने जालिम बना दिया।
दबी हुई आवाजों की ये पीड़ा, कभी कोई सुना करता।
साहस होता उस स्वर को, जब कभी तीव्र हुआ करता।
दिल में भी जब प्रलाप ज्वाला, आ जाती है कभी-कभी।
अधिकारों को जाकर मांगू, जो मेरे हैं उन्हें सभी।
फिर पग मेरे थम जाते हैं, सो जाती मंद गति।
आशा की किरणें बुझ जाती, वह कल्पना फिर न रही।
संगीतों का वह स्वर भी अब, एक चुभन सा लगता है।
आंखें भी प्यासी हो जाती, सब कुछ यूं ही बिखरता है।
खुशियां जीवन में चाहने को, मन लालायित रहता है।
यह मन प्यासे पंछी जैसा, जगह-जगह भटकता है।
(गुडि़या के डायरी के पन्नों से)

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

नारी व्यथा

ये बंधन नहीं. मुझे खुद को अर्पण करना बाकी है।
दुख ही मेरा जन्म सदा, मैं अर्पण की बलिबेदी में।
जलना मेरा अधिकार सदा, आंसू ही मेरे मोती हैं।
आंचल ही प्रेम सदा, मैं राही एक अकेली हूं।
करुणा ही मेरी आह भले, फिर भी मैं एक पहेली हूं।
ममता ही मेरा राग रहा, फिर भी मैं एक पहेली हूं।
जब कोई मैंने जन्म दिया, फिर भी मैं एक असहाय रही।
जुल्म कई मुझ पर पड़ते हैं, फिर भी मैं एक क्षम्य रही।
कोमल दिल में साहस की मैं एक पहचान अदम्य रही।
जीवन मेरा जग को है, दफन ही मेरा साया है।
त्याग किया मैंने ये जीवन, फिर भी कुछ नहीं पाया है।
फूलों की वर्षा मैंने की, कांटो की सेज मुझे मिली।
मैं एक सूना दीया, फिर भी लौ मुझमे सदा रही।
मैं एक सूनी नदी रही, ठोकर भी मैंने सदा सही।
विरह ही मेरा जीवन है, इसी की मैं एक मूरत हूं।
लुटना ही मेरा लक्ष्य सदा, मैं घर की ही घूसर हूं।
दुख से ही जीवन का उदय हुआ, दुख ही जीवन की कथा बनी।
मैंने कांटों की चुभन सही, होंठो पर फिर भी मुस्कान रही।